Marco बिना नायक की फ़िल्म शुरू से अंत तक सिर्फ़ खून और वहशीपन



एमपी नाउ डेस्क



MARCO FILM:  फ़िल्म और फ़िल्म में दिखाएं जाने वाले दृश्य का स्तर इस तरह गिरेगा यह तो भारत में पहली फ़िल्म बनाने वाले दादा साहेब फाल्के ने भी कभी कल्पना नहीं की होगी, लेकिन ये सब हो रहा है हिंदी से लेकर दक्षिण तक फिल्मों की कहानी क्रूरता का हर लेवल पार कर चुकी है। चिंता का विषय यह नहीं है कि ऐसी फिल्में बन रही है इस बात के इतर अधिक चिंता का विषय दर्शकों के द्वारा ऐसी फिल्मों को देखना और ऐसे लोगों को प्रेरित करना की वह ऐसी फिल्में और अधिक बनाएं।

यह अधिक चिंतनीय है, 20 दिसंबर 2024 को भारतीय सिनेमा का काला दिन ही रहा होगा जब सिनेमाघरों में Marco जैसी फ़िल्म रिलीज हुई....कई लोगों ने तारीफें की...बेहतरीन एक्शन फिल्म का तमगा दे डाला...100 करोड़ रुपए भी कमा दिए लेकिन कई लोग ऐसे भी थे जिन्होंने फ़िल्म देखकर अपनी आंखों को अंधा होने से बचा लिया क्योंकि ऐसी फिल्में देखकर आप स्वयं की नजरों में गिर जाओगे।

फिल्म को फिल्म के तौर में देखो उससे भावनात्मक पक्ष ढूंढने की कोशिश न करो ऐसी कई बातें ऐसी फिल्मों के समर्थन में कहने कई लोग आ जाएंगे लेकिन मैं ऐसे लोगों के लिए कहना चाहूंगा... गिर- गिर कर ज़मीन में घुसे पड़े हो अब तो धरती ने भी तुम्हें अपने अंदर लेना छोड़ दिया है।

फ़िल्म शुरुआत से बकवास परोसती हुई आती है जो अंत तक परोसती रहती है फ़िल्म में कोई नायक नहीं है सब वहशी दरिंदे भरे हुए पड़े है...जिस मार्को को कथित तौर में नायक दिखाया गया है...उसकी भावना मरी पड़ी है।

एक भाई के बदले के लिए अपने पूरे परिवार को संकट में डाल देता है...दिमाग नहीं... भावना नहीं...स्नेह नहीं...प्यार नहीं.. दर्द नहीं...ऐसे व्यक्ति को कोई कैसे नायक कह सकता है। ऐसी फिल्मों से एक दर्शक के रूप में आप जितने दूर रह सकते है...बिल्कुल रहें...ऐसी फिल्मों को देखना उसके बारे में बात करना भी एक अपराध ही है...मुझे इस अपराध का भागी बनना पड़ा।



अरविंद साहू (AD) Freelance मनोरंजन एंटरटेनमेंट Content Writer हैं जो विभिन्न अखबारों पत्र पत्रिकाओं वेबसाइट के लिए लिखते है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी सक्रिय है, फिल्मी कलाकारों से फिल्मों की बात करते है। एशिया के पहले पत्रकारिता विश्वविद्यालय माखन लाल चतुर्वेदी के भोपाल कैम्पस के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के छात्र है।


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