बनारस नही गए हो तो हो आ जाये बनारस यात्रा वतान्त।



एमपी नाउ डेस्क

बनारस..!
इस ब्रम्हांड में एकलौती ऐसी जगह जो मुझे मेरे अपने शहर से भी ज्यादा अजीज है ।
हालांकि मैं एक बार ही बमुश्किल जा सका हूँ, लेकिन उस एक यात्रा ने मुझे बनारस से ऐसी मुहोब्बत करा दी कि बस लगता है जो भी है बस यहीं है ।


होगा दुनिया के लिए कश्मीर स्वर्ग और पैरिस रोमांटिक, लेकिन हम जैसे इश्क़बाज़ों के लिए तो बनारस ही जन्नत है और बनारस ही रोमांटिक बनारस एक ऐसा आईना है जो झूठ नही बोलता ।
जो खुद का खुद से बिल्कुल वैसा ही परिचय कराता है जैसे तुम हकीकत में हो, चाह कर भी रजा बनारस में तुम दिखावा नही कर सकते, राह चलते छुटकू मउज लइ लेते हैं ।




यहां के हर एक घाट पर इश्क़ महकता है ,जीने का असली रंग बनारस की उन आड़ी टेढ़ी भूल भुलैया गलियों में बसा है । और ये रंग आप पर भी भरपूर चढ़ता है जब आप खुद को इन गलियों में भटकते हुए पाते हैं ,आधुनिकता और पौराणिकता का अद्भुद संगम है ।
जहां एक तरफ हर दस कदम पर मंदिर और घाट हैं, वहीं ऐसा कोई बड़ा ब्रांड भी नही जो बनारस के सजे धजे मॉल्स और शॉपिंग सेंटर में न हों ।




बनारस शहर नही है, और हो भी नही सकता, अगर होता तो आज दिल्ली बम्बई जैसा कोई कंक्रीट का जंगल होता । बनारस एक संस्कृति है, बनारस की पहचान किसी खास इमारत या वर्ड हेरिटेज की कोई खंडहर नही है। बनारस बनारस है अपने आचरण की वजह से अपने माहौल में घुली मउज और हर गली में बिखरी भौकाली की वजह से बनारस एकलौता शहर है जो सांस लेता है। और बनारासिये एकलौते प्राणी जो ज़िन्दगी जीते हैं काटते नही । 


गुरु भाषा की मिठास और तंज का चुटकी भर चाट मसाला एक साथ सिर्फ यहीं देखने को मिलता है। बनारासिये चाशनी में लपेट के ऐसी लंतरानी झाड़ते हैं की सामने वाले से हंसते बने न रोते। 
कहते हैं कि किसी भी तरह का कलाकार हो एक बार बनारस आ जाये बस । यहां कलाकारों के लिए प्रेरणाओं की भरमार है । गुरु हिंदी का कोई भी लेखक हो उसकी लिखावट में कभी न कभी कहीं न कहीं बनारस उभर के आ ही जाता है ।




यहां लोग मशरूफ होते हुए भी मशरूफ नही हैं, आप जिससे भी मिलिए वो ऐसे मिलता है जैसे आपका पड़ोसी ही है जितना मिलना चाहिए उससे ज्यादा ही मिलता है। और बातों के सिलसिले में न बनारासिये संकोच करते हैं और न ही आपको करने देते हैं। उनसे बात करने का अलग ही रोमांच है । शब्दों में संस्कार,संस्कृति और आधुनिकता का ऐसा मेल की बस सुनते ही जाओ..
बातों की बातें तो यूँ जानिए की जो ऑटो वाले पंडित जी हमें शहर घुमा रहे थे वो बात करते करते सामने देखना ही भूल जाते थे। कई बार तो हमारी फट के फ्लावर हुई ।
फिर एकदम से ब्रेक लगती और पंडित जी के मुह से एक ही वाक्य निकलता....


"हई भोसड़ी का ठोक देबा का"





बहुत कुछ लिखा जा चुका है बनारस के बारे में और मैं तो कोई लेखक भी नही हूँ की पूरा उपन्यास लिख दूँ । लेकिन हां बिना लिखे तो रहने भी नही देता बनारस ।

शहर में लोग कामकाजी हैं, लेकिन हमारे और तुम्हारे शहर की तरह बनारासिये सिर्फ दफ्तर को नही निकलते, उनक निकलना तो सुबह की चाय से शुरू हो जाता है । सुबह सुबह चाय की गुमटी पर ऐसी भसड़ होती है कि पूछों मत । कोई राजनीति की गणित बैठाता हुआ मिल जाता है तो कोई बवासीर की बीमारी का शर्तिया इलाज बताते हुए । और कोई तो इतनी लंबी लंबी छोड़ता है की बस यही अगला प्रधानमंत्री बनेगा ।
और ये सिलसिला सिर्फ चाय पर नही खत्म होता, ये चलता है रात के आखरी बनारसी पान तक ।
और दिलदारी ऐसी की अनजान लोगों की चाय और पान के पैसे कोई और ऐसे ही देकर निकल जाता है। और तब पता चलता है कि ये भारतेंदु हरिश्चंद्र का शहर है।  असली रहीसी तो इन्ही लोगों के दिल मे बसी है और वो भी पीढ़ियों से ।

हालांकि दक्षिण छोड़ के देश के लगभग सभी प्रांतों में घूम चुका हूं । लेकिन बनारस जैसा शहर और यहां जैसे मौजियल और जिंदादिल लोग कहीं और नही मीले, और न शायद कभी मिलेंगे ।
क्योंकि बनारस अनोखा और इकलौता है। 
और ये आप तब ही जान पाएंगे, जब आप बनारस का एक चक्कर लगाएंगे ।

© विपिन श्रीवास्तव (यात्रा वतान्त)

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