किरदार की ऑनलाइन वर्कशॉप का चौथा सत्र रहा लोक-संस्कृति व रेडियो नाटक को समर्पित

एमपी नाउ डेस्क



•सौंधी-सौंधी सी है अपने छिंदवाड़ा की बोली : अवधेश तिवारी

छिंदवाड़ा । अपनी माटी के रंगों को बिखेरने और अंचल के वरिष्ठ कलाकारों के अनुभवों को सहेजने के लिए किरदार संस्थान द्वारा प्रारम्भ हुई कार्यशाला "माटी के रंग,किरदार के संग" को स्थानीय प्रतिभागियों का अच्छा प्रतिसाद प्राप्त हो रहा है। इस ऑनलाइन कार्यशाला में ओम् मंच पर अस्तित्व संस्था का सकारात्मक सहयोग निरंतर जारी है। किरदार सचिव ऋषभ स्थापक ने बताया कि रविवार को इस कार्यशाला का चतुर्थ सत्र प्रारम्भ हुआ जिसमें अतिथि वक्ता के रूप में जिले के प्रख्यात साहित्यकार एवं आकाशवाणी के पूर्व उद्घोषक श्री अवधेश तिवारी उपस्थित रहे। जिसमें उन्होंने रंगमंच में आंचलिक भाषा और बोलियों के महत्व को सब के सामने रखा, उन्होंने अपने लोकभाषा में रचित दोहों व गीतों के माध्यम से सीख भरी रसानुभूति कराकर सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। रेडियो नाटक के बारे में विस्तृत जानकारी साझा करते हुए उन्होंने कहा कि रेडियो नाटक एवं मंच नाटक में समानता तथा अंतर को अभिव्यक्त किया। वो ऐसा मानते है रेडियो नाटक श्रव्य होते हैं जिसमें कान ही आंख का कार्य करते हैं। रेडियो नाटक के लिए सम्पूर्ण वायुमंडल ही एक मंच के समान होता है। वर्तमान समय में रेडियो नाटक का विस्तार जारी है। आकाशवाणी के हवामहल व रंगतरंग कार्यक्रम के माध्यम से ऐसे नाटकों का प्रसारण निरन्तर किया जाता रहा है। मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित पंचपरमेश्वर एवं जयशंकर के स्कंदगुप्त के साथ ही ऐतिहासिक घटनाओं पर नाट्य प्रसारण होता रहा है। श्री तिवारी द्वारा प्रतिभागियों को रेडियो नाटकों के प्रस्तुतिकरण के गुर सिखलाए गए।


●कार्यशाला में वरिष्ठों का मिल रहा भरपूर सानिध्य



कार्यशाला के रंग-गुरु विजय आनंद दुबे ने रेडियो नाटकों पर उल्लेखनीय उद्बोधन दिया साथ ही आंचलिकता पर श्री तिवारी द्वारा किए गए शोधकार्यों व रचनाधर्मिता को नवोदित सृजनकारों के लिए पथप्रदर्शक एवं पाठकों के लिया अनमोल सृजन बताया। वर्कशॉप मेंटर व वरिष्ठ रंगकर्मी नितिन जैन "नाना" द्वारा आंगिक अभिनय किए बिना केवल वाचिक अभिनय के माध्यम से भावों को अभिव्यक्त कैसे किया जाता है ये समझाया गया। इस सत्र में वरिष्ठ रंगकर्मी श्री अरविंद रंजन कुण्डू, श्री वाय वी कश्यप, फिल्मकार श्री केशव कैथवास व प्रोफेसर डाॅ. अमर सिंह परामर्शदात्री-दीर्घा में उपस्थित रहे। वहीं ओम् टीम के विक्रम टी.डी.आर. (मुंबई) द्वारा तकनीकी प्रभार बखूबी संभाला जा रहा है। सत्र समापन पर कार्यशाला निर्देशक डॉ. पवन नेमा एवं संयोजक शिरिन आनंद दुबे द्वारा आभार व्यक्त किया गया।



◆श्री तिवारी के साहित्यिक पड़ाव पर एक नज़र



श्री तिवारी ने अपने साहित्यिक जीवन पर चर्चा करते हुए बताया कि मेरा जन्म चौरई विकासखंड के एक छोटे से गांव पिपरिया रत्ती में  3 जनवरी 1959 को हुआ था पिता शिक्षक थे और धर्म, नीति तथा सिद्धांत के बाहर कभी समझौता नहीं करते थे। उन्होंने बचपन से मुझे रामचरितमानस पढ़ने की प्रेरणा दी। हमारे घर में गीता प्रेस की 'कल्याण' पत्रिका नियमित आती थी वह भी होश संभालते ही मेरे जीवन का हिस्सा बन गई।फिर पिताजी के आदर्श, रामचरितमानस और 'कल्याण-' यह तीनों मुझे धीरे -धीरे गढ़ते  रहे। मालूम नहीं बाल्यावस्था से ही रेडियो का उद्घोषक बनने की आकांक्षा कहां से मन में आ गई  और संसार में सबसे अधिक प्यार मुझे रेडियो से ही हो गया। रेडियो को देखते ही मैं सम्मोहित- सा हो जाया करता था। किंतु आर्थिक अभाव के कारण काफी कोशिश के बाद भी घर में रेडियो लाना संभव नहीं हुआ। इसी बीच पिताजी से मुझे कविताएं लिखने का शौक मिला और 10 वीं, 11 वीं कक्षाओं से ही कविताओं के क्षेत्र में मुझे सराहना मिलने लगी। इंटरमीडिएट की पढ़ाई के बाद मैं शिक्षा विभाग में निम्न श्रेणी लिपिक के पद पर नियुक्त हो गया लेकिन जीवन के सबसे बड़े लक्ष्य के रूप में रेडियो यहां भी सपनों में पलते रहा और सन 1985 में यह सपना साकार हुआ जब आकाशवाणी के उद्घोषक के रूप में प्रथम नियुक्ति अंडमान निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्ट ब्लेयरमें मिली, जहां में 1988 तक निरंतर कार्यरत रहा
 फिर वहां से स्थानांतरित होकर छतरपुर और छिंदवाड़ा में इस दौरान अपने अञ्चल की भूली बिसरी   कहावतों का संग्रह करके मैंने उन पर दोहे की रचना करते हुए 'कल्लू के दद्दा कहिन' नामक ग्रंथ प्रकाशित किया है जिस पर 2018 में मध्य प्रदेश के महामहिम राज्यपाल ने मुझे लोक कवि ईसुरी पुरस्कार से सम्मानित किया। इसके पूर्व खड़ी बोली का काव्य संग्रह 'तिमिर के दीप' व 'कल्लू के दद्दा कहिन' प्रकाशित हो चुका था इस दौरान  अनेक संस्थाओं के द्वारा पुरस्कृत और सम्मानित किया गया ।अब मैं सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन के कार्य में लगा हुआ हूं।
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